Thursday, July 8, 2010

किशन शर्मा का कहानीकार

'कला-प्रयोजन' के विशेषांकों की समृद्ध परम्परा में इस दफा हम हिंदी के एक समर्थ कथाकार स्व. किशन शर्मा की नयी पुरानी कुछ कहानियों के अलावा उन पर केन्द्रित कथाकार अशोक आत्रेय की आलोचनात्मक टिप्पणी के साथ उपस्थित होंगे. सन साठ-सत्तर के दशक में जब की हिंदी कहानी एक तूफानी बदलाव से निकल रही थी, किशन शर्मा ने हमारे साहित्य को कुछ बेहतरीन कथाएँ दीं, भले वे संख्या में कम हों. किशन शर्मा आधुनिक-साहित्य के अध्येता रचनाकार थे. उनका कथा-शिल्प ठोस गद्य की बुनियाद पर टिका हुआ था, निर्मल वर्मा या अन्यों की तरह उन्होंने कविता की सी संवेदना को 'कहानी' में नहीं मिलाया, बल्कि ठोस कहानी या गद्य की वस्तुनिष्टता की एकाग्र दृष्टि के सहारे आधुनिक जीवन के विविध पक्षों, खास तौर पर समकालीन राजनीति के व्यभिचारों और आम आदमी के दंशों को उभारा. आधुनिक मनुष्य की अस्तिवमूलक विडम्बनाओं के भीतर झांकते हुए किशन शर्मा का कहानीकार एक बड़े कथाकार की ही तरह, मनोविज्ञान, अर्थतंत्र, राजनीति, और अस्तित्ववाद के पेचीदा सवालों तक भी गया, और परिणामतः कुछ बेहतरीन कहानियाँ हिंदी को मिलीं. दुर्भाग्य से हिंदी के पाठक ही नहीं हिंदी के लेखक की स्मृति भी कमज़ोर है वर्ना इतिहास में किशन जी जैसे प्रतिभाशाली लेखक का सम्मानपूर्वक ज़िक्र किया जाता. हमने रांगेय राघव को बहुत थोडा याद रखा तो मणि मधुकर को भुला दिया... , किशनजी तो खैर किस गिनती में आते जो एकदम मूक रह कर चुपचाप लेखन-कर्म में ही लगे रहे - न किसी गोष्ठी में गए न लेखक सम्मलेन में, न संपादकों से दोस्ती रखी, न समीक्षकों का  हुक्का कभी भरा. वह पुराने चलन के आदमी थे. एक पत्रिका के संपादक के बतौर इन पंक्तियों के लेखक को लगा अगर हम एक प्रतिभावान लेखक पर सामग्री नहीं छापेंगे तो उसी गुनाह में शामिल होंगे जो आज तक दूसरे संपादक और आलोचक करते आये हें : इत्यलम,

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