Sunday, September 2, 2012


भौंर्या मो कमलानाथ किशनू हाँफता हुआ आया और उत्तेजित सा चिल्ला चिल्ला कर कहने लगा- “बीरमा बळाई का पोता बड़ के नीचे मरा पड़ा है”. नानी ‘हे राम, हे राम’ कहती हुई पगथियों से धीरे धीरे नीचे उतरी और छोटे मामा को पुकारने लगी. हम सभी बच्चे भोंचक्के से किशनू के गिर्द इकट्ठे हो गये. मैं दो दिन पहले ही नानी के पास छुट्टियों में गाँव आया था. यही था मेरा ननिहाल - महापुरा गाँव. थोड़े दिन बाद तेजाजी का मेला लगने वाला था और मेरे हमउम्र ममेरे भाई मेरे आने से उत्साहित थे. वे मेरे पिछली बार गाँव आने से अब तक की, गाँव की, वहाँ के लोगों की, खेतों की, कलमी आम के पेड़ों की और घटनाओं की जानकारी बड़े उत्साह से दिया करते थे. मुझे भी बड़ा मज़ा आता था – सभी की उत्सुकता का केन्द्र मैं ही जो था. नाना वहाँ के इज्ज़तदार लोगों में थे और जागीरदार के रूप में उनकी खासी प्रतिष्ठा थी. अम्मा बताती थीं मेरे पैदा होने के क़रीब डेढ़ साल पहले वे नहीं रहे थे. उनके अन्य चचेरे भाई और उनके परिवार भी गांव में रहते थे. सभी के आसपास खेत भी थे. गाँव के मुख्य चौक पर मेरे नाना का ही एक पक्का मकान था जो पत्थरों से बना था, बाकी सभी कच्चे थे. संकरे रास्तों को छोड़ कर ये सभी मकान एक दूसरे से सटे हुए थे. बहरहाल मेरे नाना और उनके भाई गाँव में बड़ी हैसियत रखते थे. जागीरदारों की सी हैसियत. मैंने न नाना को देखा था न उनके किसी भाई को. लेकिन उनके भरे-पूरे परिवार अवश्य थे और मेरे सभी मामा इस तरह अपने पिताओं की खेती की ज़मीनों पर बंटवारा करके रह रहे थे. गाँव के ही किसान उन खेतों पर मामाओं की तरफ़ से खेती करते थे. मेरे मंझले मामा के अपने बैल भी थे जिन्हें शाम को किसान लोग काम के बाद बाड़े में बाँध जाया करते थे. उनके खेत में गेंहू, जौ होते थे पर हमको यहाँ उगे ५ आम के पेड़ों और फालसों की झाड़ियों में ज़्यादा रुचि थी जिनमें उन दिनों फल आया करते थे. इनमें से एक आम का पेड़ हमारा, यानी अम्मा के नाम कर दिया गया था, ऐसा मेरे इन भाइयों ने मुझे बताया था. उस पर चढ़ कर बैठना मुझे बेहद अच्छा लगता था. उससे आईं कैरियाँ या आम कभी कभी जयपुर आजाते थे. इन आम के पेड़ों पर हम ‘गुलाम लकड़ी’ खेल खेला करते थे जो किशनू, सुद्धा वगैरह पहले से खेलते थे और उन्होंने मुझे सिखाया था. कोई एक बच्चा टांगों के नीचे से घुमा कर एक डंडे को दूर फ़ेंक देता था और तब तक बाकी बच्चे पेड़ पर चढ़ जाते थे. उस पेड़ के चारों तरफ़ एक गोला बना दिया जाता था जिसके अंदर वह डंडा रख दिया जाता था. पेड़ से उतर कर बाकी बच्चों में से किसी को डंडा उठाना पड़ता था लेकिन अगर इस प्रक्रिया में कोई उसे पेड़ के नीचे ज़मीन पर होने के कारण छू ले तो अगली ‘पोत’ उसे देनी होती. पर वह वापस पेड़ पर चढ़ कर बच सकता था. इस तरह अपनी होशियारी दिखाने के लिए और डंडे को खिसकाने के लिए ख़ूब पेड़ से कूदना और उस पर चढ़ना होता था जिससे थोड़ी देर में ही थकावट हो जाती थी. पर इससे पेड़ों पर चढ़ने का अच्छा अभ्यास हो जाता था. ‘अम्मा के पेड़’ पर डालियाँ नीचे से ही शुरू होगईं थीं इसलिए मुझे इस पेड़ पर चढ़ने उतरने में ज़्यादा आसानी होती थी, बनिस्बत अन्य पेड़ों के जिनके तने काफ़ी लंबे थे. मैं होता था, तब इसी पेड़ पर हम ‘गुलाम लकड़ी’ खेलते थे. अम्मा का वैसे ही गाँव में ख़ूब सम्मान था और फिर वो गाँव की बेटी जो थीं, और सारे बच्चों की बुआ. सारी औरतें उनके आते ही उन्हें घेर कर बैठ जाती थीं और तब उन तक पहुंचना भी मुश्किल हो जाता था. अम्मा मुझसे कहती थीं गाँव में मेरे ४७ मामा हैं. पहले आश्चर्य होता था, फिर यहाँ आने पर पता चला सचमुच सभी मेरे मामा हुआ करते थे – नील्या भंगी, भौंर्या और लादूराम पुजारी, ओंकार और भौंरीलाल बामण, कजोड़ी ढोली, लादूराम पटवारी, छग्या भड़भूंज्या, गणेश्या कुम्हार, छगन्या जाट, गिरदा माली......हमें सभी के नाम के आगे मामा लगा कर संबोधित करना होता था. अगर कोई बुज़ुर्ग हो, मसलन बीरमा बळाई, तो उसके नाम के आगे बाबा लगाना पड़ता था. जैसे बीरमा बाबा. गाँव से ही जुड़े एक सेडूराम सरपंच और स्रीनाराण जी बैज्जी (श्रीनारायण जी वैद्य जी) भी थे जिनके बारे में फिर कभी. अभी सिर्फ़ इतना कि सेडूरामजी सरपंच होने के नाते काफ़ी प्रभाव रखते थे, मंझले मामाजी के मित्र थे और कुछ छोट-मोटे राजनेताओं या मंत्रियों को जानते थे. स्रीनाराण जी बैज्जी गाँव के धनवान लोगों में, बल्कि यों कहें, एक मात्र अच्छे खासे धनवान थे जिनके यहाँ कहते हैं रुपये बोरियों में पड़े रहते थे और जिनके दो और भाई थे. उनसे छोटा हरसहाय मशीनों की अच्छी जानकारी रखता था और ट्रेक्टर, जीप, पम्प-मोटर आदि ठीक कर सकता था. शायद जयपुर में उन लोगों का एक ‘कारखाना’ भी था. तीसरा जल्दी ही मर गया. वैसे मेरे तीन मामा थे पर छोटे मामा हमको सबसे अच्छे लगते थे- ख़ासकर इसलिए कि वे खुशमिज़ाज थे और इसलिए भी कि पूजा के बाद वे हमें किशमिश दिया करते थे. वैसे खेल खेल में अकसर वे हमें उस समय तक जकड़ कर रखते थे जब तक कि हम ‘चीं’ नहीं बोलते. दिन भर की मटरगश्ती करके शाम को घर लौट आने पर माहौल बिलकुल ही बदल जाता था. सारे गाँव में अँधेरा अँधेरा हो जाता था- डर सा लगने लगता था. कभी कभी अचानक किसी पक्षी की तेज़ चीख़ रोंगटे खड़े कर देती थी. गाँव में बिजली नहीं थी इसलिए आमतौर पर बच्चे घर से बाहर रात को नहीं निकलते थे. घरों की लालटेनें या चिमनियां अपने निर्धारित ‘मोखल्यों’ या खंदों में रखी रहती थीं जो अँधेरा होते ही जला दी जाती थीं. उनकी धुंए की लौ से ऊपर छत तक गहरी काली लकीरें बन गयी थीं जिन्हें मैं अकसर घूरा करता था. एक अजीब तरह का अहसास होता था उनको देखने पर. कभी साँपों की कल्पना होती थी, कभी उन काली लाइनों पर हाथ फेरने की इच्छा होती थी यह देखने के लिए कि इससे हाथ कितने गंदे हो सकते हैं. सारे वातावरण में केरोसिन से जली चिमनियों और लालटेनों की गंध बसी रहती थी जो दिन में भी लगभग उसी तरह फैली रहती थी. पर हमेशा वो मुझे सुगंध सी ही लगती थी. बड़े मामा पढ़ लिखने के बाद नौकरी के लिए जयपुर चले गए थे मामी के साथ. बाकी दोनों मामियां इकट्ठी होकर चौक में रखे चूल्हे में रोटियाँ बनाती थीं. पहले हम सब बच्चे खाना खाते थे, बाक़ी लोग बाद में. रोटी, अचार और सब्ज़ी या दाल के साथ अकसर गुड़ की शक्कर होती थी जो मुझे बेहद पसंद थी. घर में हम कभी ऐसी शक्कर नहीं खाते थे. सफेद शक्कर सिर्फ़ दूध में ही अच्छी लगती थी. हमें जल्दी ही खाना खाकर अपने अपने गद्दों चद्दरों में घुस जाना अच्छा लगता था क्योंकि हममें से कोई न कोई नई रोचक कहानी या प्रसंग शुरू करने वाला होता था. ज़्यादातर किशनू ही इस मामले में पहल करता था क्योंकि अक्सर हमारी, यानी मामाजी की, बकरियों को वो खुद दूर दूर तक घुमाने लेजाता था और इस तरह गाँव और आसपास के बारे में सबसे अधिक जानकारी उसी के पास होती थी. भूतों और चुड़ैलों के बारे में वह अकसर बड़े आत्मविश्वास और महारत के साथ बात करता था और गाँव के विभिन्न व्यक्तियों के साथ हुई उनकी तथाकथित भिड़ंतों से सम्बंधित किस्से बयान करता था. वह कहता था कई बार वह खुद उल्टे पैरों वाली चुड़ैलों को देख चुका था. सवेरे सवेरे हम सभी मिट्टी के या अल्यूमीनियम के अपने अपने लोटे लेकर जंगल की तरफ़ जाते थे. सब अकसर किसी न किसी झाड़ी की तथाकथित आड़ लेकर बैठ जाते थे. कभी कभी एक नज़र एक दूसरे की तरफ़ भी मार लेते थे- ये देखने के लिए कि कौन अपनी पहली वाली जगह से कितनी दूर तक खिसका है. वैसे असल में ‘कुछ और’ भी देखने का मकसद होता था. हाथ में कोई न कोई छोटा ‘फल्डा’ या सरकंडा होता था जो मक्खियाँ भगाने के या आसपास आने वाले कीड़ों को दूर खिसकाने के काम आता था. सबसे ज़्यादा कोफ़्त सिर्फ़ इस बात से होने लगती थी कि जल्दी ही मक्खियाँ आसपास भिनभिनाने लगती थीं- ख़ासकर मोटीवाली नीली नीली मक्खियाँ जिनसे थोड़ा डर लगता था. शायद यही कारण था कि झाड़ियों के चुनाव में थोड़ी सतर्कता बरतनी होती थी, जैसे कि उसके आसपास खिसकने के लिए उपयुक्त और संतोषजनक जगह होनी चाहिए, हालाँकि ज़्यादातर अच्छी जगह लोगों ने पहले ही ढूंढ ली होती थीं और वहाँ बैठना संभव नहीं होता था. बीच बीच में मक्खियों की भिनभिनाहट और दूर अजमेर सड़क पर चलने वाले वाहनों की आवाज़ आजाती थी. किसी खेत से किसी चिड़िया के चहचहाने या टिटहरी की ‘टीच टीच टिर्र’ भी तरंगों की तरह तैरती कानों को छू कर बह जाती थी. कभी कभी हमारे किसी मामा के आमों पर दूर मंडराते तोतों के फड़फड़ाने या चीखने की आवाज़ एक उम्मीद जगाती थी कि शायद आमों की कैरियाँ या फालसे थोड़े पकने लगे होंगे. हमारी अपनी आपस में धीमी बातें भी ऐसी लगती थीं जैसे हम चिल्ला रहे हों. इतनी शांति और नीरवता मैंने इससे पहले कभी नहीं देखी या महसूस की. दूर से आती कल्याणा पटवारी के खेतों में बैलों को हांकने की बड़बड़ाहट और किसी की बैलों की माँ के साथ निकट सम्बन्ध बनाने वाली गालियां लहराती हुई बीच बीच में सुनाई दे जाती थीं और हम लोग हँस पड़ते थे हालाँकि उन सब का अर्थ तब पूरी तरह स्पष्ट नहीं था. ये ज़रूर मालूम था कि वो अच्छी खासी गालियाँ हुआ करती थीं. कल्याणा का एक बैल बहुत सुस्त था- किशनू ने बताया था. वह बैल पहले बगरू के पटवारी के यहाँ हुआ करता था. खैर, इस सारी मशक्कत के बाद हम लोग मामाजी के खेत में जाते थे जहाँ पानी से भरी एक छोटी सी कुण्डी एक बड़े पत्थर पर रखी होती थी. उसमें लगी लकड़ी की डाट को हटा कर पानी खोला जाता था जो अंदर की गन्दगी से इतना रुक रुक कर आता था कि सबसे पहले कुण्डी तक पहुँचने के लिए हर रोज़ दौड़ लगानी पड़ती थी. मिट्टी से तीन बार हाथ धो कर अपने अपने लोटे मिट्टी से ही साफ़ करके घर लाने होते थे. ****** जयपुर से लगभग १० मील दूर अजमेर सड़क पर ‘बोंल्याळी पो’ (बबूल वाली प्याऊ) के सामने से बाईं ओर डेढ़ मील अंदर तक एक कच्चा रास्ता गाँव महापुरा को जाता था. महापुरा होकर ही कई अन्य गाँवों का भी रास्ता हुआ करता था. यह गाँव मेरे लिए खास इसलिए था कि यह मेरी नानी का गाँव था. लगभग पचपन वर्ष पहले जयपुर से अजमेर जाने के लिए जो सड़क थी वह बेहद छोटी थी. आसपास दूर दूर तक सिर्फ़ बालू ही बालू या मिट्टी के टीले दिखाई देते थे. या फिर खेत और बैलों की मदद से कुएं से सिंचाई करने के लिए पानी निकालते या हल जोतते किसान. इस छोटी पक्की सड़क पर काफ़ी अंतराल के बाद कोई लंबी नाक वाली पेट्रोल की बस दिखाई दे जाती थी. इन बसों के इंजनों को अंग्रेज़ी ‘जेड’ की शक्ल के एक लोहे के हेंडल की सहायता से घुमा कर ही चालू किया जा सकता था. सड़क के दोनों ओर बैलगाड़ियों के आवागमन से पगडण्डीनुमा कच्चे रास्ते बन गए थे जिन पर किसान अपनी फ़सल या तरबूज़, खरबूज़े, ककड़ी बैलगाड़ियों पर लादे हुए दिखाई दे जाते थे. इन पगडंडियों के परे खेतों से सटी झुरमुट झाड़ियाँ और बबूल के पेड़ आसपास की बकरियों की पसंदीदा जगह हुआ करते थे. बरसात के दिनों में ‘भरभूंट्या’ और ‘गोखरू’ की झाड़ियाँ उग आती थीं और पैदल चलने वालों को ये काँटों वाली झाड़ियाँ काफ़ी परेशान करती थीं. पर साथ में और झाड़ियाँ भी होती थीं जो मुख्यतः लाल बेरों की होती थीं. हम लोग अकसर बैलगाड़ियों से ही गाँव जाते थे. आधे रास्ते तो पैदल ही उछलकूद करते हुए और झाड़ियों से लाल बेर तोड़ तोड़ कर खाते हुए. फिर चलती बैलगाड़ी में दौड़ते हुए कूद कर बैठ जाते. जयपुर से कुछ दूर पर ही इस रास्ते में पहले एक ‘नहर’ आया करती थी. वास्तव में यह अमानीशाह नाला था जो अकसर बहता रहता था और जिसे ‘नहर’ के नाम से जाना जाता था. एक ढलान से हो कर नाले तक पहुँचते थे जो सभी का, खास तौर से साईकिल वालों का, मनपसंद हिस्सा होता था क्योंकि वे बिना पैडल मारे फर्राटे से नहर के आगे तक पहुँच सकते थे. नहर के बाद चढ़ाई पड़ती थी जिसे पार करने में साइकिलों, तांगों और बैलगाड़ियों को बेहद कठिनाई होती थी. सवारियां उतर जाती थीं और साइकिलें पैदल चल कर चढ़ाई के अंत तक लेजाई जाती थीं. बसें किसी तरह घूं घूं करके धीरे धीरे चढ़ती थीं. नहर के आसपास चारों ओर सब्ज़ियों के खेत थे. गाँव के रास्ते में अगला जो सबसे बड़ा और प्रमुख पड़ाव आता था वह था भांकरोटा, जहाँ साईकिल सवार, बसें, बैलगाड़ियां आदि सभी विश्राम के लिए रुकती थीं. यहीं एक दो दुकानें चाय वालों की थीं, एक हलवाई जलेबी और कचोरी बना कर रखता था, एक थड़ी पर सोडा और शर्बत की कुछ बोतलें रखी रहती थीं, और आसपास कुत्तों को फटकार कर या लात लगा कर भगाते कुछ बच्चे, जिनकी नाक अकसर बहती रहती थी. नानी के गाँव के लादूराम पुजारी, जिन्हें हम लादू मामाजी कहते थे, एक थाल में त्रिशंकु या पुंगीनुमा काग़ज़ की पुड़ियाओं में (जैसी ‘चना-जोर-गरम’ के लिए होती हैं) सांगानेरी दाल (चने की नमकीन दाल) बेचा करते थे. लादू मामाजी जयपुर में हमारे यहाँ हर पूर्णिमा को भोजन के लिए भी आते थे. रसोई के ठीक बाहर उनके लिए एक निर्धारित कोना था जिस पर ‘पोतना’ करके थाली रखने के लिए साफ़ कर दिया जाता था. अगला पड़ाव “जखीरा’ळी पो” हुआ करता था, पर हम वहाँ पानी नहीं पीते थे क्योंकि उससे करीब २ मील आगे ही ‘बोंल्याळी पो’ थी जिसे बड़ या शायद पीपल के एक बड़े पेड़ के नीचे बनाया गया था. पेड़ की छाया की वजह से कुछ लोग गर्मी के दिनों में यहाँ कभी पलक भी झपक लेते थे. बोंल्या (बबूल) के पेड़ों के झुंडों के बीच एक रामझारा और ४-५ घड़ों के साथ चबूतरे पर एक वृद्ध सज्जन जिनका नाम गोकर्णा था, और जो हमारी नानी के गाँव के ही हुआ करते थे, यात्रियों को पानी पिलाने के लिए बैठा करते थे. यहाँ हमारी काफ़ी आवभगत हुआ करती थी अम्मा की वजह से. इस प्याऊ के ठीक सामने से यानी अजमेर सड़क की बाँई ओर से एक कच्ची चौड़ी सी पगडण्डी दिखाई देती थी जो हमारे गाँव महापुरा को जाती थी. पक्की सड़क बस इसी मोड़ तक थी और गाँव तक का रास्ता साइकिल वालों को पैदल चल कर ही पार करना होता था. कुछ देर विश्राम करके और ठंडा पानी पीकर गाँव के बाशिंदे और बैलगाड़ियां कच्चे रास्ते पर चल पड़ते थे. इस रास्ते पर आते ही ऐसा लगता था जैसे हम गांव लगभग पहुँच ही गए. बीच बीच में कोई न कोई परिचित साइकिल हाथ में पकड़े या बैलगाड़ी में आता जाता मिल जाता था जो बड़े स्नेह से ‘राम राम’ अवश्य बोलता था. गाँव पहुँचते ही चिर-परिचित से मिट्टी के ऊँचे-ऊँचे टीले, मामाजी के खेत, बड़ का घना बड़ा पेड़, मीठा कुआँ, आसपास पानी पीते जानवर, बालू रेत, चहलपहल, कुछ परिचित व्यक्ति या रिश्तेदार वगैरह दिखाई देने लगते थे. **** गाँव में जो सार्वजनिक जगह सबसे प्रसिद्ध थी वह थी- मीठा कुआँ और उसके आसपास का बड़ा खुला क्षेत्र. यहीं पास में एक बहुत पुराना बड़ का पेड़ था जिसके इर्दगिर्द एक फूटा सा चबूतरा था लेकिन जो वर्षों से गर्मी/धूप में उस गाँव से गुज़रने वाले लोगों के लिए आराम करने का अच्छा स्थान बन चुका था. मुख्यतः गाँव में दो कुएँ थे – एक मीठा कुआँ जिसमें एक रस्सी और उससे बंधी डोलची हमेशा एक घिरघिट्टी से लटकी रहती थी ताकि कोई भी यात्री ठन्डे मीठे पानी से अपना गला तर कर सके. कुएँ की मुंडेर की दूसरी ओर एक बड़ा सा लाव (रस्सा) और उससे बंधा चमड़े का बड़ा चरस हुआ करता था. हर सुबह और शाम दो बैल इस लाव को खींचते थे और पानी भरे चरस के ऊपर आने पर एक आदमी उसे मुंडेर के बाहर रस्से से अलग कर देता था जिससे उसका सारा पानी बह कर पास ही एक खेळी (कुण्डी) में चला जाता था जहाँ गाँव के जानवर पानी पीते थे. कभी कभी वह आदमी रस्से पर बैठ जाता था और कोई गाना गाता था. चरस को खाली होने के बाद फिर से कुएँ में लटका दिया जाता था और बैलों को कुएँ की गहराई और लाव की लम्बाई जितनी परिधि के अंतिम छोर से वापस लौट आने पर दूसरे चक्कर के लिए फिर जोत दिया जाता था. इस तरह खेळी हमेशा पानी से भरी रहती थी ताकि वहाँ से गुज़रने वाली गायें, भैंसें, बकरियां, भेड़ें, ऊँट वगैरह पानी पी सकें. दूसरा कुआं गाँव के बीचोंबीच था जो ‘खारा कुआँ’ के नाम से जाना जाता था. ज़ाहिर है इसका पानी खारा था. कुछ लड़कियां और औरतें पानी खींचते दिखाई देजाती थीं. गाँव की नीची जाति के लोग ही इस कुएं से पानी ले सकते थे. अगर इन लोगों को कभी मीठे कुएँ से पानी पीना हो तो कोई सवर्ण ही इन्हें पिला सकता था, वे खुद मीठे कुएँ की मुंडेर पर चढ़ कर अपने आप पानी नहीं खींच सकते थे. पास ही एक चबूतरे की एक मुंडेर पर गाँव के जाटों के आराध्यदेव ‘तेजाजी’ की एक पुरानी पत्थर की शिला लगी हुई थी हालाँकि उस पर क्या खुदा हुआ था यह समझ में नहीं आता था, पर यह तेजाजी की आकृति ही बतलाई जाती थी जिसके अनुसार तेजाजी खड़े हुए थे, अपने दोनों हाथों में साँपों को उठाए हुए. कुछ लकीरें जो शायद साँपों की आकृतियाँ दर्शाती थीं ज़रूर देखी जासकती थीं. उस दीवार पर किशनू हमें कभी नहीं चढ़ने या बैठने देता था. कहता था तेजाजी का सांप काट लेगा. बाकी तीनों तरफ़ से चबूतरा खुला था. मीठे कुएँ के आसपास कई और भी बड़े पेड़ थे – पीपल और नीम के, जिनमें कम से कम दो पुराने पेड़ों की जड़ों के पास साँपों की बांबियाँ थीं. किशनू ने बताया था ये सांप तेजाजी के ही थे. तेजाजी का मेला जो अगले तीन दिनों में लगने वाला था इसी चबूतरे के गिर्द लगता था. इन सब के अलावा मुख्य रूप से थी चारों ओर दूर दूर तक फैली साफ़, सुनहरी, रेशमी बालू रेत. गर्मियों की दोपहर में तो उस पर चलना भी मुश्किल था, पर शाम को और चांदनी रात में ठंडी ठंडी बालू में दौड़ने में बड़ा मज़ा आता था जब हमारे पाँव ६-६ इंच तक धंस जाते थे. यह स्थान किसी पार्क का सा दृश्य पेश करता था- बच्चे रेत में कुश्ती, कबड्डी, पकड़म-पकड़ाई या ‘सितोलिया’ खेला करते थे, गाँव के बुज़ुर्ग अपनी चौपाल लगाते थे, और लड़कियां पैलदूज, चपेटे या कोई अन्य खेल खेला करती थीं. चरने के बाद वापस लौटते जानवर कुण्डी में पानी पीते थे और फिर चरवाहे उन्हें हांकते हुए ले जाते थे. अपने घौंसलों में वापस लौटते पक्षियों के कलरव से शाम होने की आवाज़ तेज़ होजाती थी. इस तरह रात की सियाही फैलने से पहले तक फिर धीरे धीरे वहाँ रहस्यमय सी शांति उतरने लगती थी. तब केवल ब्यालू के बाद टहलने के लिए निकले लोग या छोटी टोलियों में गपशप करते लड़के ही दिखाई देते थे. चांदनी रातों में बहरहाल ऐसा बड़े स्तर पर होता था. अँधेरी रातों में साँपों का डर जो रहता था. अगर एक जगह से दूसरी जगह अँधेरे में जाना पड़ता तो अक्सर लालटेन साथ करदी जाती थी, हालाँकि उसके प्रकाश से ज़्यादा सिर्फ़ उसके साथ होने के अहसास से ही सुकून मिलता होगा. गाँव में शायद ही किसी के पास बैटरी (टॉर्च) हो, पर वैसे रात में लोगों का आना-जाना बहुत कम ही होता था. आवश्यकता पड़ने पर लोग अपनी उपस्थिति का भान ज़ोर से खंखार कर या भजन गा कर कराते थे. शायद इसके दो और भी उद्देश्य थे- एक तो अपने आप को आश्वस्त करना और दूसरा जंगली जानवरों, साँपों आदि को अपने रास्ते से भगाने की कोशिश करना. इससे यह भी फ़ायदा होता था कि यदि कोई केवल अँधेरे के सहारे ही खुले में लोटा लेकर बैठा हो तो वह सम्हल जाये और किसी आड़ में हो जाये. *** बीरमा बळाई के पोते छिगन्या को भौंर्या मो ने मारा था! उनके आतंक के कारण कोई लाश के पास तक नहीं जा सका था दो घंटे तक. किशनू ने घर में सब को सूचना दी थी. ‘ऊधमी छोरो छो, छेड़्यो होयलो भौंर्या मो नै’ मामाजी ने राय दी. सारे मामा लोग आपस में या गाँव में किसी से भी बात करते समय ढूंढारी (जयपुरी) भाषा ही बोलते थे, सिवा हमारे साथ. रात को सोते वक्त उस दिन किशनू ने कई तरह के भूतों के किस्से भी सुनाये. एक चुड़ैल तो मीठे कुएँ से रात को बारह बजे रोज़ पानी पीती थी. उसे एक बार लादू मामा ने बताया था. दूसरे गाँव से पूजा करके लौटते वक़्त जब भी कभी देर हो जाती थी उनको वो चुड़ैल दिखाई देती थी. उसके दोनों पैर उल्टे होते हैं. किशनू ने बताया अगर उसकी तरफ़ बिना देखे अगर कोई दूर से ही निकल जाये तो वो तंग नहीं करती. हम किशनू के सामान्य ज्ञान, हिम्मत और चुड़ैलों को पहचानने की और उनसे निबटने की विलक्षण क्षमता से हम हमेशा प्रभावित रहते थे. जैसा मैंने पहले बताया, बड़ का वह पेड़ बहुत पुराना था. इसकी टहनियों से लंबी लंबी जड़ें लटकती रहती थीं. कई बार ऐसा लगता था जैसे बड़े बड़े लंबे सांप पेड़ से लटक रहे हों. कई जड़ें तो ज़मीन के अंदर तक धंस गई थीं और उन्होंने मोटे तनों की शक्ल लेली थी. कई बार मेरी बहनें इस पेड़ के इर्दगिर्द खेला करती थीं. भौंर्या मो के नाम से ही मुझे कई तरह की कल्पनाएँ हुआ करती थीं. कभी लगता था भौंर्या मो कोई बड़ा भेड़िया या पागल कुत्ता है- कभी लगता था शायद कोई भूत या चुड़ैल है, कभी कभी सांप की शक्ल का कोई जानवर ज़ेहन में आता था. बहरहाल यह निश्चित था, भौंर्या मो कोई बेहद ही ख़तरनाक चीज़ थी. और यह भी कि उसका वास इसी बड़ के पेड़ पर था जिसकी छाया में यात्री विश्राम करते थे और बच्चे खेलते थे. मैं सोचता रहता था किस तरह भौंर्या मो के इस पेड़ पर कब्ज़ा करने के पहले तक हम यहाँ स्वच्छंद हो कर खेला करते थे. पर अब ये भौंर्या मो! हर रोज़ सुबह जंगल जाते या वापस लौटते वक़्त किशनू हमें हमेशा इस पेड़ से दूर हटा कर लेजाता था. मेरे मन में अब यह पेड़ खौफ़ सा पैदा करने लग गया था और अकसर इसकी तरफ़ या इसके ऊपर देखने की हिम्मत नहीं होती थी. कभी कभी रात को सपने भी आते थे जिनमें मैं उस बड़ के पेड़ से उलटी लटकती हुई उल्टे पैर वाली चुड़ैलों को देखता था. उनके हाथ इतने लंबे थे कि पेड़ के पास से जाने वाले लोगों को वे आसानी से उठा सकती थीं. लेकिन लादू (पुजारी) मामा को विश्वास था कि गाँव में जो मंदिर हैं उनके कारण कोई चुड़ैल गाँव में प्रवेश नहीं कर सकती. *** गाँव के बीच में दो मंदिर थे- एक शिव मंदिर जो पुराना था और दूसरा लक्ष्मीनारायण मंदिर जो कुछ वर्षों पहले ही बना था. शाम होने के बाद हर रोज़ लक्ष्मीनारायण मंदिर में आरती होती थी, घंटा और झालरों के साथ. एक आदमी बाएं हाथ से झालर को ऊपर से नीचे घुमाता था और नीचे आने पर दूसरे हाथ से लकड़ी के हथौड़ीनुमा डंडे से उस पर मारता था. यह सब एक लय और ताल से होता था. घंटे की पहली ध्वनि के साथ ही बाहर कुछ कुत्ते इकट्ठे हो कर समवेत स्वर में मुंह उठा कर ‘हू हू’ करके रोते थे. हर रोज़ यही सिलसिला चलता था जब तक आरती होती थी. अम्मा कहती थीं वे भगवान से शिकायत करते हैं कि उनको कुत्ता क्यों बनाया. जो भी हो, पर यह संयोग विस्मयकारी था. गाँव में ही एक ओंकार नाम के मामा थे जिनको बड़े लोग हमेशा ओंकार्या के नाम से ही पुकारते थे. वे अधेड़ावस्था से बुढ़ापे की तरफ़ तेज़ी से बढ़ तो रहे थे पर उन्होंने शादी नहीं की थी. अकसर वे दूसरे यानी शिव मंदिर में पाए जाते थे और बड़े भक्तिभाव के साथ शिवलिंग को स्नान कराके तीन उँगलियों से तीन आड़ी लकीरों वाला चन्दन लगाया करते थे. कभी कभी स्नान कराते वक़्त अचानक ही बड़े ज़ोर से ‘बम बम बम बम’ बोल उठते थे. शिवलिंग के ऊपर हमेशा एक मिट्टी का घड़ा लटका रहता था जिससे बूँद बूँद पानी शिवलिंग पर टपकता रहता था. शिवरात्रि या ऐसे ही किसी अवसर पर कभी कभी पानी की जगह दूध भर दिया जाता था. काले रंग के, कुछ गंजे, मोटी आँखों वाले और अचानक बम बम बोल उठने वाले ये ‘ओंकार मामाजी’ हमेशा मुझे शिव के ही कोई गण नज़र आते थे, इनसे डर सा लगता था और उनके पास जाने की हिम्मत कभी नहीं होती थी. वैसे मैंने उन्हें कभी हँसते या मुस्कराते भी नहीं देखा था. हाँ, अम्मा से उनकी बड़ी अच्छी तरह बात होती थी और वे लोग ढूँढारी (जयपुरी) बोली में ही बात करते थे. एक मोटा जनेऊ पहने खुले बदन वे कई बार मंदिर के बाहर ‘दासे’ पर बैठे रहते थे. कई बार मैंने उन्हें कुछ बच्चों को पहाड़े रटवाते भी देखा था – ‘सत्रा छक् दुलंतर सो’ (१७ गुणा ६ = १०२) ‘सत्रा सत्ते एक कम बीस्याँ सो’ (१७ गुणा ७ =११९) ‘बारम्बार चाळा रे चंवाळ सो’ (१२ गुणा १२ = १४४) ‘तेरा तेरा घुणन्तर सो’ (१३ गुणा १३ = १६९) .......... .......... मुझे भी इसी तरह ४० तक के पहाड़े याद कराये गए थे और वे बहुत कारगर हैं. अम्मा को तो पौना, सवाया, डेढ़ा, ढइया, ढींचा वगैरह तक के पहाड़े सब याद थे और वे बड़ी आसानी से साढ़े तीन गुणा डेढ़ का उत्तर बता देती थीं. *** हमारे मामाजी के कई चचेरे भाई भी थे जो, ज़ाहिर है, रिश्ते में सब हमारे मामाजी ही लगते थे. उनमें एक ही परिवार के पांच भाई बड़े नामी थे जो सभी एक ऐसी भाषा के विभाग से सम्बंधित रहे जिससे उनका किसी तरह का कोई रिश्ता नहीं रहा था सिवा इसके कि इनमें से एक भाई सबसे पहले उस विभाग में नौकरी में लग गए और वहाँ के सरल स्वभाव वाले डाइरेक्टर के कृपापात्र बन गए और आजन्म यानी उनकी मृत्यु तक, जो उनके उस पद पर रहने के दौरान ही होगई, बने रहे. आगे चल कर उनका इतना दबदबा हो गया कि उन्होंने गाँव की आधी से ज़्यादा आबादी को इसी विभाग में ही, कभी कभी उनकी योग्यतानुसार, पर ज़्यादातर मामलों में उससे ऊंचे पदों पर, खपा दिया. आगे चल कर उन्होंने कुछ ऐसा चक्कर चलाया कि खुद भी वहीं ऐसे पद से सहायक निदेशक के पद पर चढ़ बैठे जहाँ से किसी अन्य विभाग में ऐसा संभव नहीं होता. खैर, इन पाचों भाइयों में हर एक उन दिनों की प्रमुख पार्टियों कांग्रेस और जनसंघ में से किसी एक पार्टी की विचारधारा के साथ था. ताश खेलने में भी ये लोग माहिर थे और इस दौरान अक्सर उनमें विवाद हो जाता था जो ताश में की गई बेईमानी से शुरू होकर, उनकी पार्टियों की नीतियों से होता हुआ उनके नेताओं द्वारा निजी ज़िंदगियों में किये जारहे भ्रष्टाचार और व्यभिचार तक जाता हुआ हाथापाई से कुछ ही कमतर भयंकर वाक् युद्ध में बदल जाता था. अगर उस समय में ध्वनि की तीव्रता नापने का कोई साधन होता तो पता चलता कि वह आम आदमी के कान के पर्दों के लिए सह्य अधिकतम डेसीबल सीमा से कई गुना ऊँची पहुँची हुई होती थी. यह सब इतना ज़बर्दस्त होता था कि एक मील दूर भी किसी व्यक्ति को कोई संदेह नहीं होता कि वहाँ कोई गंभीर मारपीट या झगड़ा हो रहा है. मुझे भी पहली बार यही धोखा हुआ था और मैं कुछ डर सा गया था. पर सुद्धा ने बड़ी सहजता से बताया कि वे लोग ताश खेल रहे हैं. बहरहाल ये सभी भाई अपनी उम्र के मुताबिक और तत्सम्बन्धी सभी कार्यकलापों में रुचि रखते थे. इन्हीं भाइयों के एक और बड़े भाई थे जो उनके चचेरे भाई थे. जयपुर में ही वे किसी महकमे में काम करते थे. गाँव से शहर आवागमन के लिए उन्होंने अपनी साईकिल में एक इंजन फिट करा लिया था. दुर्भाग्यवश एक बार जयपुर से गाँव आते वक़्त किसी दुर्घटना में वे कोहनियों तक अपने दोनों हाथ खो बैठे. उनके ५-६ पुत्रियां और २ पुत्र थे. एक पुत्री तो बोलने में सिर्फ़ ट-वर्ग - ट, ठ, ड का ही इस्तेमाल करती थी. कंतो से झगड़ा होने पर वह उसको धमकी देती थी - “ओ टंटो, टो मानैं ने टाईं, टाटाडी टूं ठै डउं डी” (ओ कंतो, को माने न कांईं, काकाजी सूं कह दऊंगी). कोटा में जन्मीं उनकी पत्नी दबंग, पर अच्छे अंग सौष्ठव वाली थीं- लंबी, छरहरी, सुन्दर भी. ऊपर से तुर्रा ये कि वे ज़्यादा ही खुली और खुशमिज़ाज, हंसीमजाक करने वाली थीं जो कि देवरों की चिर-आकांक्षा रहती है. ज़ाहिर है सभी देवर उनसे अच्छे और मधुर सम्बन्ध रखने के इच्छुक थे और वास्तव में रखते भी थे. सभी लोगों में वे भाभीजी के नाम से प्रसिद्ध थीं. हर देवर, ख़ासकर ये पांच हमेशा यह ध्यान रखने का सतत् प्रयत्न करते थे कि चाहे सुनसान दोपहर हो या देर रात, भाभीजी को अकेलापन कभी न सताए. शायद यही कारण रहा होगा कि जब भी उन लोगों में से किसी को ऐसा आभास होता कि भाभीजी अकेलेपन से जूझ रही होंगी, उनमें से कोई न कोई शुभचिंतक सतर्कता से इधर उधर झांकते हुए उनको साथ देने पहुँच जाता. जब कभी ये लाचार भाईसाहब लघुशंका के लिए रात में उठते या उठने से पहले खंखारते, तब भाभीजी का एकाकीपन यकायक दूर हो जाता और देवर चुपचाप खिसक लेता. भाभीजी निरंतर सौभाग्यशाली रहीं कि किसी भी देवर ने उन्हें कभी एकाकीपन महसूस होने नहीं दिया. इन पांच मामाओं स्वयं के एक वृद्ध मामा थे जो पूर्णतः अंधे थे और ऊंचा सुनते थे. पूरे गाँव में वे मामाजी के नाम से ही जाने जाते थे. अक्सर वे किसी बच्चे की सहायता से लघुशंका स्थल तक लेजाते देखे जासकते थे. उनकी ख़ास बात ये थी कि वे ब्रजभाषा की कविताओं और कवित्तों में महारथ रखते थे. पद्माकर, केशव आदि के कवित्त वे बड़े चाव से सुनाते थे. अगर कुछ मनचले इकट्ठे होकर उनसे कवित्त सुनाने का आग्रह करते तो भी वे बिना उनकी मक्कारी भांपे उनको सचमुच गुणग्राही समझ लेते थे और कवित्त सुनाने लगते थे. वे हमेशा सिर और कानों को ढकने वाला एक सूरदासी टोपा पहन कर रखते थे. साधारणतः वे मैली सी ऊंची धोती और घर में सिला हुआ जेब वाला बनियान या बगलबंदी (बन्डी) पहनते थे, हां विवाह आदि कार्यक्रमों में ज़रूर उनकी धोती और बगलबंदी धुली हुई होती थी और वे बड़े सम्मान के साथ लाये जाते थे. तब यथासमय उनके कवित्तों का दौर चलता था. विवाहों के अवसर पर मंगलाचरणों और सुन्दर घनाक्षरी छंदों से वे रस सृजन करते थे और अंत में ‘शुभलग्न सावधान’ बोलते थे. यह आश्चर्यजनक है कि उनको ब्रजभाषा के सभी दिग्गज कवियों के दोहे, कुण्डलियाँ, कवित्त, छंद, सोरठे, आदि कंठस्थ थे. दुर्भाग्य से उनके किसी सम्बन्धी ने न तो उनसे कुछ सीखने का प्रयत्न किया न ही उनके कवित्तों का संकलन किया. उनकी बुज़ुर्गियत और इस क्षमता का सम्मान अक्सर शादी-ब्याह, यज्ञोपवीत आदि अवसरों पर ही देखने को मिलता था, बाकी समय उनके स्वयं के पोते-दोहते और अन्य छोरे-छपारे उनकी लाचारी का मज़ाक उड़ाते पाए जाते थे या उन्हें तंग करते दीखते थे. शौचादि के लिए मामाजी के लिए कच्चे मकानों के पिछवाड़े में ही मिट्टी की दीवार के पीछे एक स्थान विशेष निर्धारित था जिसके आसपास बबूल की सूखी टहनियाँ, कांटे वगैरह पड़े रहते थे. नील्या भंगी या उसके परिवार का दायित्व था कि हर रोज़ वह स्थान साफ़ रहे. गाँव के कुछ बच्चे जो शायद उस परिवार में मामाजी के सम्मानजनक ओहदे से बेखबर थे, कभी कभी चलते फिरते उनके ‘सूरदास’ होने पर फ़ब्तियां कस देते थे. पर बच्चों को फटकार कर या गाली देकर वे आगे बढ़ जाते थे. एक बार शौच जाते वक़्त कुछ बच्चों ने उनके साथ अभद्र व्यवहार किया था और मिट्टी की टूटी दीवार के एक छेद में से कोई सरकंडा या डंडा मामाजी के खुले स्थान पर घोंप दिया था. उस हादसे के बाद से वे एक छड़ी हमेशा अपने पास रखते थे और शौच के समय किसी भी संभावित या काल्पनिक उपद्रवी को दूर रखने के लिए बीच बीच में वे उसे घुमा देते थे एक घुड़की के साथ. उपचार से सतर्कता भली. इन्हीं मामाओं के एक चाचा थे जिन्हें वे लोग लादू काकाजी कहते थे. हम उन्हें लादू नानाजी पुकारते थे. इन्होंने इन मामाओं में से एक को गोद ले लिया था जो बेहद हकलाते थे. ये मामा सारे गाँव के इंजीनियर माने जाते थे. हर व्यक्ति जो अपना मकान बनवाता, इनसे ज़रूर सलाह लेता था और ये सहर्ष गाँव के मिस्त्रियों को जु़बानी नक्शा समझा दिया करते थे. इसी का नतीजा था कि गाँव के हर नए मकान का नक्शा एक सा होता था- सामने दो कमरे जिनमें घुसने के दरवाज़े भी बाहर थे, उन दोनों कमरों के बीच से घर में अंदर जाने के लिए एक पोली, फिर चौक और चौक के तीन तरफ़ फिर कमरे. टट्टी गुसलखाना वगैरह सब बाहर ताकि बाहर से ही नील्या भंगी हर रोज़ सफ़ाई कर दिया करे. बहरहाल इस नक़्शे से किसी को कोई शिक़ायत नहीं थी. ये कुशल पाकशास्त्री भी थे जो बड़े बड़े भोजों के लिए या शादी-ब्याहों में आने वाले किसी भी संख्या में मेहमानों के लिए लगने वाली सामग्री का तौल बता देते थे और इस तरह सारे गाँव के लोगों की निःशुल्क मदद करते थे. खैर, लादू नानाजी काले, मोटे, और रौबीली आवाज़ के मालिक थे, लेकिन उनकी तेज़ आवाज़ अपने पुत्र और भतीजों के बच्चों को पुकारने में या गली के कुत्तों को हड़काने में ज़्यादा सुनाई देती थी. बहरहाल वे अपने सभी पोते पोतियों को बेहद प्यार करते थे और उनका ख्याल रखते थे. अपने ज़माने में वे अच्छे समाजसेवी भी रहे होंगे और निश्चित ही निर्बल, असहाय नारियों को संबल देते रहते होंगे. कभी अंग्रेजों की सेवा में रही एक महिला जिन्हें पूरा गाँव पुनिया बोरी के नाम से जानता था, वर्षों से इन्हीं नानाजी और उनके परिवार के साथ रहती थीं. गोरी चिट्टी ये वृद्ध महिला अपनी नाक पर दाहिनी तरफ़ एक मोटा सा फूलनुमा कांटा पहनती थीं और अपने ज़माने में यकीनन सुन्दर और प्रभावशाली रही होंगी. इनके मुंह और हाथों पर बहुत सारे टैट्टू भी गुदे हुए थे. इनके बारे में यह प्रसिद्ध था कि ये अंग्रेज़ी जानती हैं. सुद्धा और मैं उनसे पूछते थे – ‘पुनिया बोरी, पानी को क्या कहते हैं?’ वे तपाक से जवाब देतीं – ‘बिंग ऑटो’. कई दिनों के विचार मंथन के बाद हम लोगों ने यह निष्कर्ष निकाला कि जिस अंग्रेज़ के यहाँ वे काम करती होंगी वो कहता होगा – ‘ब्रिंग वाटर’ और उन शब्दों का अर्थ उनके लिए था पानी. बहरहाल पुनिया बोरी पहले लादू नानाजी और फिर उनके पूरे परिवार की सेवा में आजन्म समर्पित रहीं और उस परिवार के सारे बच्चों का उन्होंने ही लालन पालन किया. उन्हीं की सेवा में रत इस सीधीसाधी निश्छल महिला ने वृद्धावस्था में कई वर्ष गुज़ारने के बाद गाँव में ही देहत्याग किया. *** रिश्तेदारों के अलावा मेरी बहनों की कुछ अन्य सहेलियां भी थीं. इनमें उल्लेखनीय भौंरीलाल जी बाण्या की लड़कियां थीं. संयोगवश भौंरीलाल जी जो मूल रूप से तो महापुरा निवासी थे पर जयपुर में कुछ काम करते थे और हमारे जयपुर के मकान में किराएदार की हैसियत से या वैसे ही रहते थे. उनकी सबसे बड़ी लड़की जिनको मेरी बड़ी बहन की सहेली थी. कभी कभी चपेटे खेलते हुए वे गुपचुप कुछ बातें करती थीं और एक दूसरे की पीठ पर धौल जमा कर बीच बीच में शैतानी से हँस देती थीं. उससे छोटी शांति नीम-पागल सी थी, फिर नोरती और सबसे छोटी शकुंतला. उनका एक लड़का भी था उन सबसे छोटा, करीब ४-५ साल का, जिसे सब लोग ‘भाया’ बुलाते थे. ज़ाहिर है वह सब का लाड़ला था, ख़ास तौर से अपने चाचा छोटूजी का. छोटूजी खुद अपने आप में एक विचित्र शख्सियत थे. शकुंतली मेरी दोस्त हुआ करती थी, लगभग मेरी ही उम्र की या मुझसे एकाध साल छोटी थी और मुझे ‘यार जी’ कह कर संबोधित करती थी, जिस को सुन कर सब स्त्रियां हंसी से अपना मुंह दबा लेती थीं. कभी कभी कुछ धार्मिक किस्म की औरतें मुझे कृष्ण और उसे राधा बना कर अजीब सा श्रृंगार करके और मुकुट लगा कर एक मंदिर तक लेजाती थीं. तब मुझको लगता था काश शकुंतली से मेरी शादी होगई होती. भाया हमेशा अपनी किसी न किसी बहन की गोद में लदा रहता था. सबसे ज़्यादा प्यार शायद उसको छोटूजी ही करते थे जो अक्सर उसे मूंगफली छील छील कर खिलाते हुए नज़र आते थे. एक बार जब छोटूजी ने मूंगफली देना बंद कर दिया तो भाया बोला - ‘अरै भंगी का मूत, मनैं एक मूंफली तो देदे’. मेरी शब्दावली में तब एक नया शब्द जुड़ा था. पर जब मैंने अम्मा से ‘भंगी का मूत’ का मतलब पूछा तो उन्होंने अपनी हंसी रोकते हुए मुझे झिड़का और फिर दुबारा ये शब्द कभी नहीं बोलने की हिदायत दी. बहरहाल उस संबोधन का, या अगर वह गाली थी तो उसका, अर्थ समझने में कई वर्षों तक मुझको दिक्कत आई. इस सब के बावजूद छोटूजी हमेशा भाया को अत्यधिक स्नेह करते थे और गोदी में उठाये रखते थे. जब कभी साईकिल पर वे बाज़ार जाते तो भाया के लिए साईकिल के डंडे पर अपना गमछा लपेट कर गद्दीनुमा आरामदायक जगह बनाते जिस पर भाया अपनी दोनों टाँगें हैंडल के नीचे छोटे डंडे के इर्दगिर्द लपेट कर बैठ जाता था. छोटूजी ताउम्र अविवाहित रहे, अपने भाई और उसके परिवार के प्रति समर्पित रहे और भाया से उतना ही प्यार करते रहे. बाद में वे हमारे दूसरे मकान में कई वर्षों तक हमारे साथ भी रहे थे और कभी कभार छोटा मोटा काम कर देते थे. उस दौरान वे अपना थोड़ा सा सामान ‘मशीन के कमरे’ में रखते थे जो बमुश्किल ४ फुट गुणा ४ फुट था और जिसमें पहले से ही एक पुराना पम्प और बिजली के ३ सिंगल फेस मीटर पड़े थे. उसके बाहर ही उनकी तथाकथित साईकिल रखी रहती थी जो कई मायनों में बड़ी प्रसिद्ध थी. वह इतनी धीमी गति से चलती थी या छोटूजी द्वारा चलाई जाती थी कि उस पर कई चुटकुले बन गए. एक बार अम्मा ने छोटूजी से कुछ सामान मंगवाते वक़्त कहा था- ‘छोटूजी, थोड़ो जल्दी को काम छै, साईकिल तो ईंढै ही मेल द्यो और फटाफट पैदल जा’र शाकभाजी खरीद ल्याओ’. ये बात जब भी छोटूजी की याद होती है तो दोहराई जाती है. बाद के दिनों में छोटूजी अक्सर गंभीर और अपने आप में ही मग्न रहते थे, बस अचानक कभी कभी हँस देते थे. छोटूजी हमारे सबसे छोटे मामाजी के साथ गाँव में बचपन से रहे थे और अंत तक उनके साथ सम्मानजनक मित्रभाव रखते थे. युवावस्था में दोनों ने गाँव में किसी अघोरी बाबा की सेवा भी की थी. वे बतलाते थे एक दिन किसी अघोरी ने गाँव में कुछ दिन के लिए एक पेड़ के नीचे डेरा डाल लिया. मामाजी और छोटूजी उसकी सेवा में रहने लगे और गाहे बगाहे उसके लिए घर से खाना ले जाने लगे. किसी समारोह के दिन उन्होंने अघोरी को खीर खाने के लिए निमंत्रण दिया, पर अघोरी ने मना कर दिया और कहा वह खुद ही यहीं इसी वक़्त खीर बना लेगा. तब उसने पास ही पड़ी हुई किसी कुत्ते की या सूअर की विष्ठा उठा कर एक मिट्टी की हांडी में डाली और आसपास से सूखी लकड़ियाँ बटोर कर आग जलाई. वह हांडी को आग पर रख कर एक डंडी से लगातार हिलाता रहा. कुछ ही देर में खीर तैयार थी. उसने छोटूजी और मामाजी से खीर खाने का आग्रह किया. कुछ देर की टालमटोल के बाद वे मना नहीं कर सके. बड़ी झिझक के साथ छोटूजी और मामाजी ने खीर खाई. पर वे दोनों सौगंध के साथ कहते हैं कि वह सचमुच खीर ही थी और स्वादिष्ट थी. कहते हैं अघोरी ऐसा कुछ भी कर सकते हैं. गाँव में छोटूजी के हिस्से का एक छोटा सा खेत भी था जिसमें तीन आम के पेड़ लगे थे जिनमें उनके अनुसार सालाना औसतन ५ मन कैरियाँ आती थीं. हालाँकि गाँव छोड़ते वक़्त उन्होंने वह खेत तो बेच दिया पर बाद में भी पेड़ों पर वह अपना अधिकार समझते रहे. गर्मियों में अक्सर गाँव जाकर आम लाने का प्रयास करते थे और ज़मीन के मालिक के साथ उनका हमेशा झगड़ा होता था. इस मामले में कई वर्षों तक उन्होंने मुकदमा भी लड़ा जो बाद में वे हार गए और उसके बाद से हमेशा दुखी रहने लगे. उनका बोलचाल भी समाप्तप्राय ही होगया. बस बीच बीच में अचानक हँस देते. कालांतर में उन्होंने किसी छाबड़ा जी के स्कूल में नौकरी कर ली थी जिसके तहत वे हर आधे घंटे के बाद घंटी बजाते थे और बीच के वक़्त में बच्चों को रामझारे से पानी पिलाते थे. छाबड़ा जी और सभी बच्चे उनसे खुश थे और उनका आदर करते थे. *** उम्र और लिंग के अनुसार गाँव में कई तरह की टोलियाँ बन जातीं थीं. छोटे बच्चों, छोटी लड़कियों, किशोरी लड़कियों या किशोर लड़कों की. ये सभी लगभग अलग अलग ही रहते थे. गर्मी की छुट्टियाँ होने की वजह से महापुरा से बीकानेर जाचुके कई परिवार भी इन दिनों बच्चों सहित आजाते थे, इनमें कई ऐसे भी बच्चे थे जो दिखने में थोड़े छोटे लगते थे पर जिनका सामान्य ज्ञान काफ़ी विकसित था, खासतौर से विभिन्न शारीरिक अंगों और उनके उपयोग के बारे में, जिसका प्रदर्शन वे बेझिझक करते रहते थे. किसी से झगड़ा होने पर गुस्से से लच्छेदार बीकानेरी भाषा में चंदू कहता था – ‘मस्साण कूँ बेकड़ू में रमाय दूंगो’ और फिर मारपीट पर उतारू होजाता था. बहरहाल किशोरावस्था वाली टोली में रिश्ते के मेरे कुछ भाई और मामा थे- सरोज, बीया, बल्लू, मोथा, चिड़िया, मोती वगैरह जो आपस में दोस्त थे और हम बच्चों वाली टोली से अलग रहना पसंद करते थे. गप्पें मारने के अलावा वे लोग ताश खेलते थे, या कभी कभी कबड्डी. कई बार वे एक दूसरे की निकरों या पाजामों में हाथ डालते थे, झटके से हाथ खींच लेते थे और फिर हँसते थे. उन लोगों की गुपचुप बातों से मालूम होता था कि इस मामले में बीया और मोती बड़े धाकड़ माने जाते थे. अगर हम बच्चों में से वहाँ कोई होता था तो उसे डाँट कर भगा दिया जाता था. पर हमारी हमेशा इच्छा रहती थी कि कभी अचानक हम भी किसी की जेब में हाथ डालें और जानें कि हंसी क्यों आती है. पर ऐसी हिम्मत कभी नहीं हुई. लड़कियों की अलग टोली पैलदूज या चपेटे खेलती थी, जब कि हमारी टोली किशोरोंवाली टोली की जासूसी करने से बचे समय में पकड़म पकड़ाई या सितोलिया खेलती थी या फिर तेजाजी के चौंतरे पर उछलकूद करती थी. हनुमान राणा जिसे सब लोग हणमान पुकारते थे गाँव का ढोली था. वह कजोड़ी ढोली का बेटा था जो अब बहुत बूढ़ा होगया था. इसलिए शादी-ब्याहों, उत्सवों या रामलीलाओं में हणमान ही या उसके भाई नगाड़ा या ढोल बजाते थे. उसका छोटा भाई नाराण था जो गाँव की लड़कियों को कनखियों से देखा करता था और हणमान की अनुपस्थिति में या उसके थक जाने पर ढोल नगाड़ा बजाता था. उससे छोटा भाई रूड्या था जो इन्हीं कामों के अलावा अच्छा नाचता भी था. पहले वह बकरियां चराने भी जाता था पर एक बार एक बकरी के साथ रंगे हाथों पकड़े जाने के बाद उससे यह काम छीन लिया गया था. रंगे हाथ कैसे पकड़े जाते हैं ये मुझे समझ में नहीं आया था और शायद किशनू को भी नहीं मालूम था इसलिए वह मुझे पूरी तरह समझा नहीं पाया. रूड्या हमारी ही उम्र का था या हमसे एक दो साल बड़ा, पर घुंघरू पहन कर रामलीलाओं या उत्सवों-समारोहों में नगाड़ों की ताल पर ख़ूब नाचा करता था. कभी कभी तो उसको साड़ी पहना कर भी नचाते थे. रामलीलाओं में तो हर दूसरे दृश्य-प्रसंग के बाद या मध्यांतर में उसकी नृत्य सम्बन्धी भूमिका काफ़ी अहम होती थी. कई बार तो रामलीला के किसी प्रसंग से ज़्यादा लोगों को रूड्या का नगाड़े के साथ प्रतिस्पर्धा में जोशीला नाच पसंद आता था. कहते हैं एक बार तो वह पूरे एक घंटे तक नाचता रहा, नगाड़े वाला थक गया पर वह लगातार नाचे जारहा था. एक बार अचानक ही सारे गाँव में भूचाल सा आगया. नानी ‘हरे राम हरे राम’ का जाप ज़ोर ज़ोर से करने लगी और मंझले मामा तेज़ी से घर से बाहर निकल पड़े. हमारे पूछने पर किसी ने कुछ नहीं बताया और हमारे बाहर निकलने पर भी कुछ समय के लिए रोक लग गयी. हम शाम के धुंधलके में खिड़की से बाहर झांक कर माजरा जानने की नाकामयाब कोशिश कर रहे थे. क़रीब एक घंटे के बाद मामा जब वापस लौटे तो उन्होंने बताया कि नाराण को कुएं के बाहर निकाल लिया गया था. रामनाराण बाण्या ने जिसकी दुकान खारे कुएँ के पास ही थी, कुएं में किसी बड़ी चीज़ या आदमी के गिरने की आवाज़ सुनी थी. आननफानन में सारा गाँव कुएँ के पास इकट्ठा होगया था. हणमान को एक मोटे रस्से की सहायता से कुएँ में उतारा गया. किसी तरह हणमान ने अपने भाई को कंधों पर उठाया और लोगों ने उन्हें ऊपर खींच लिया. काफ़ी देर के बाद नाराण को होश आया. यह सब सुन कर बहुत देर तक हमें कँपकँपी होती रही. अगले दिन किशनू ने गुप्त रूप से पता किया (शायद रूड्या से) कि हमेशा की तरह कल भी नाराण अपनी भाभी यानी हणमान की बीवी के साथ सोने की कोशिश कर रहा था जिसे भाभी ने नहीं माना. इसी से नाराज़ हो कर और भाभी के साथ मारपीट करके उसने कुएँ में छलांग लगा दी थी. पर इस बात को दबा दिया गया. नगाड़े बजाने के अलावा खाली समय में हणमान किशोर टोली को फुसफुसा कर कुछ सुनाया करता था जिसे यह टोली मुस्कराहट के साथ तन्मय हो कर सुनती थी. किसी भी बच्चे के आजाने पर अचानक हणमान चुप होजाता था और बच्चे को भगा दिया जाता था. हणमान के यहाँ कुछ घोड़ियां भी थीं जिन्हें वो अपनी रेड़ी (छोटा खुला तांगा) में जोतता था. प्रजनन के लिहाज़ से वह हमेशा घोड़ियां ही रखता था जिनके नर बच्चों को बेच दिया करता था और मादाओं को फिर बड़ा करने और प्रजनन के लिए पाल लेता था. इससे उसको अच्छी आमदनी हो जाती थी. *** भौंर्या पुजारी एक निहायत ही धार्मिक प्रवृत्ति के इंसान थे जो पूजा पाठ और लोगों के कष्ट निवारण के लिए अनुष्ठान करते रहते थे. उनकी एक अत्यंत सीधी सादी, सदा हँसते रहने वाली बहन भी हुआ करती थी जिसका नाम भागवती था और जिसे अम्मा बहुत पसंद करती थीं और हमेशा कुछ न कुछ देती रहती थीं. शायद उसको मुंहबोली बहन भी बना रखा था. भौंर्या पुजारी महापुरा से जयपुर और जयपुर से महापुरा हमेशा पैदल ही चल कर आते जाते थे. उनके साथ हमेशा मोटे कैनवास की एक डोलची और एक रस्सी रहती थी जो आवश्यकतानुसार रास्ते में किसी कुएँ से पानी खींचने के काम आती थी. वे अक्सर जयपुर आते जाते रहते थे और अम्मा या तो उन्हें हमेशा भोजन कराती थीं या सीधा (खाना बनाने के लिए कच्चा सामान) देती थीं. भौंर्या पुजारी को किसी भी व्यक्ति की गंभीर बीमारी में अवश्य याद किया जाता था, बल्कि यों कहें गंभीर बीमारी में ही याद किया जाता था – महामृत्युंजय मन्त्र के जाप के लिए, जो वे बड़ी शिद्दत के साथ करते थे. जप की समाप्ति पर बड़े आत्मविश्वास के साथ घोषणा करते थे कि अब कोई शक्ति उस व्यक्ति को नुकसान नहीं पहुंचा सकती. वास्तव में ऐसा होता भी था. जिस दौरान या जितने दिनों उनका पाठ चलता था, दिए में एक फूलबत्ती मद्धम सी जलती रहती थी- इतनी मद्धम कि बहुत ध्यान से देखने पर ही पता चलता था कि कोई दिया भी जल रहा है. भौंर्या पुजारी की यह भी एक विशेषता थी. रुई की वे ऐसी बत्ती बनाते थे जो कम से कम घी की खपत में घंटों जली रह सके. वे कहते थे कि जब अपने ही घर में नित्य पाठ करना होता है तो इतना घी कहाँ से आये कि मोटी लौ वाली बत्ती जलाई जासके. इसीलिए इस महीन बत्ती का आविष्कार उन्होंने किया था. पाठ के लिए उन्हें थोड़ी सी रुई और थोड़ा सा शुद्ध घी दिया जाता था. जहाँ तक मुझे याद है हर कोई गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति जिसके लिए भौंर्या पुजारी ने महामृत्युंजय का पारायण किया, हमेशा स्वस्थ होकर ही उठा. कई वर्षों बाद भौंर्या पुजारी के बीमार होने और अंत में उनकी मृत्यु के समाचार से हम सभी को बहुत दुःख हुआ था- ख़ासकर अम्मा को. कई व्यक्तियों को महामृत्युंजय मन्त्र के जाप से मृत्यु के चंगुल से छुड़ाने वाले एक सीधेसाधे, निश्छल, निस्पृह, निश्कंचन ब्राह्मण की मृत्यु वास्तव में दुखद थी. मैं सोचता था क्या उनके लिए कोई महामृत्युंजय मन्त्र का जाप नहीं कर सकता था? भौंर्या पुजारी के चार पुत्र थे जिनमें सबसे बड़े पुत्र का नाम विद्याधर था. उसकी नाक चेहरे का ज़्यादातर हिस्सा घेरे रहती थी. वह अक्सर ऊँट पर आता जाता दिखाई देता था. हालाँकि हमारी भी ऊँट की सवारी की इच्छा होती थी पर विद्याधर की शक्ल और ऊँट के डर के कारण यह इच्छा कभी व्यक्त नहीं होसकी. कई बार हमको लगता था शायद ऊपर बैठे होने के कारण ही हम विद्याधर और ऊँट में फ़र्क कर पाते थे. खैर. *** किशनू कई बार भैंसों और बकरियों का दूध खुद निकाला करता था- खासतौर से उस वक़्त जब इस कार्य के लिए नियुक्त घासी का बाप समय पर नहीं पहुँचता था और भैंसे बेचैन होजाती थीं. आते ही वह भैंस के पाड़े को खोल देता था जो झपट कर भैंस का दूध पीने लगता था. इससे भैंस के थनों में दूध उतर आता था, उसने बताया. एकाध मिनट के बाद ही वह पाड़े को अलग करके वापस खूंटे से बांध देता और उसके आगे घास डाल देता था. फिर वह भैंस की पिछली टांगों में ‘न्याणा’ बांधता था जो एक मूंज की रस्सी होती थी. इससे भैंस के बिदकने पर या हिलने पर लात से दूध की चरी के गिरने की सम्भावना कम होजाती थी. हालाँकि मैं भी भैंस का दूध निकालना चाहता था पर पता नहीं क्यों, मेरे पास आते ही भैंस अपने लंबे मुड़े हुए सींगों से मुझे मारने या भगाने की कोशिश करती थी. मुझे लगता था अगर ये भैंस खूंटे से बंधी नहीं होती तो निश्चित ही मेरे पीछे दौड़ कर मुझे रौंद देती. बहरहाल किशनू ने मुझे बकरियों का दूध निकालना ज़रूर सिखाया. वह उकड़ूँ बैठ कर बकरी के मोटे मोटे थनों को बारीबारी से एक लय के साथ दबाता था जिससे तेज़ धार निकलती थी जो उसके घुटनों के बीच दबी बाल्टी या चरी में गिरती थी. पहली बार मैंने जब बकरी के थनों को छुआ तो एक अजीब सी सिहरन मेरे सारे शरीर में दौड़ गई थी. गर्म-से थनों का स्पर्श अंदर ही अंदर मुझमें कुछ कुछ रोमांच और हलचल जगा रहा था और यह सब मुझे बेहद अच्छा लग रहा था. शुरू शुरू में थन दबाने से दूध तो नहीं निकला, पर कुछ देर बाद बकरी ज़रूर बिदकने लग गई थी. तब किशनू खुद आकर दूध निकालता था और बताता था कि कैसे अंगूठे को मोड़ कर बाकी उँगलियों और अंगूठे के बीच थन को नीचे खींच कर दबाना चाहिए. जो भी हो, हर शाम मन ही मन ऐसी इच्छा होती थी कि घासी का बाप न आये और किशनू और मैं ही बकरी का दूध निकालें. कई बार किशनू से आँख चुरा कर मैं चुपचाप बकरी के थनों को छूता और दबाता भी था. भैंस की ठांड में चारा डालने और बकरियों को उनके प्रिय अल्डू के पत्ते रखने के बाद ही हम लोग वापस घर आया करते थे. इस सब के बाद मुझे किशनू और भैंस की बू में कोई फ़र्क नहीं लगता था. पूरी तरह अँधेरा होने से पहले ही सब बच्चे ब्यालू करके निबट जाते थे और अँधेरा होने के बाद गद्दों और लिहाफों या रजाइयों में घुस जाते थे. इन गद्दों में ख़ास तरह की बू आती थी जिसे मैं गाँव से जोड़ कर ही देखता था. ये गद्दे कई बार धूप में सूखते भी नज़र आते थे, किशनू की छोटी बहनों के कारण. पर जिस तरह चिमनियों से निकले धुएं की बू और हरि बाण्या की दुकान की सीलन मेरे लिए अपनी ख़ास जगह और प्रभाव रखती थी इसी तरह इन गद्दों की बू भी गाँव से हमेशा जुड़ी हुई रहती थी. *** नानी अक्सर हमें प्यार से एक-दो मुट्ठी जौ या गेंहू दे देती थीं. पहली बार तो समझ में नहीं आया क्या करें इसका, पर मेरे मामा के बच्चों के लिए यह इनाम था और इसका क्या करना है वे अच्छी तरह जानते थे. उन सबके साथ ही मैं भी रामनाराण बाण्या की दुकान तक दौड़ गया था. रामनाराण बाण्या का ही बेटा था हरि बाण्या जो ज़्यादातर दुकान में सामान बेचता था. यह तथाकथित दुकान एक कच्चे मकान के बाहर वाले एक कमरे में चलती थी जिसमें घुसते ही मिट्टी, सीलन और वहाँ रखे सामान की मिलीजुली गंध आया करती थी. कुछ बोरियों में बाजरा, ग्वार, जौ वगैरह भरा रहता था, आसपास कांच के मर्तबानों में छोटी नारंगी की कलियों की शक्ल में ‘लेमनचूस’ की खुली गोलियाँ, चना, धानी, मूंगफली आदि रहती थीं. उन सबके बीच खुद रामनाराण बाण्या, या उसका बेटा हरि बाण्या जो हमारी ही उम्र का था, बैठा करता था. बाहर की रौशनी से दुकान के अंदर आने पर पहले तो कुछ भी नज़र नहीं आता था, पर थोड़ी देर के बाद कुछ कुछ दिखाई देने लगता था. जौ या गेहूं जो नानी हमें देती थीं हम बाण्या के हवाले कर देते थे. उसके बदले में वह अपनी समझ से हमें जो चाहिए होता था- ‘लेमनचूस’, या आम या गुड़-चना देदेता था. हरि बाण्या ध्यान से जौ या गेहूं की मात्रा देखता था और बहुत देर सोच कर जो कुछ देता था वो हमेशा हमें कम लगता था. मोटे शीशे का चश्मा पहनने वाला हरि बाण्या इसीलिए हमें उसके बाप से भी ज़्यादा शातिर और कंजूस लगता था और हम उसको नापसंद करते थे. देर तक झिकझिक करने के बाद भी वो टस से मस नहीं होता था. जब दुकान पर नहीं बैठा होता था तो वह हमारे साथ खेलने के लिए लालायित रहता था. पर किशनू और मेरे अन्य भाई शायद उसकी इसी कंजूसी की वजह से उस पर ध्यान नहीं देते थे और ज़्यादातर वह बाहर ही खड़ा खड़ा हमको देखता रहता था. नानी इसी तरह हमसे कभी कभी कुम्हार से घड़ा या सुराही भी मंगवाती थीं, जौ या गेंहू के बदले. चूँकि मामा के यहाँ एक कमरा जौ गेहूं से भरा रहता था, कभी कभी हमलोग चुपचाप भी अपने आप कुछ मुट्ठियाँ चुरा कर मौका लगते ही बाण्या की दुकान पर सौदा कर लेते थे. स्वतन्त्र रूप से बिना किसी बड़े की सहायता या मार्गदर्शन से खरीद फ़रोख्त का यह अच्छा अवसर होता था चाहे हमें कितने ही कम चने मिलें या कितना भी छोटा आम मिले. ‘घुण घुणन्तर घुन्तर घूं, घुण घुणन्तर घुन्तर घूं’. बिरध्या जाट का एक लड़का कभी कभी दौड़ता हुआ आकर हमारे खेल में रुकावट डालता था. किशनू ने उसे उसी की भाषा में डांटा था – ‘ओ घुणन्तर! चाल फूट. द्यूं कांईं एक?’ वह दौड़ता हुआ ही लौट गया. वह हमेशा ‘घुण घुणन्तर घुन्तर घूं, घुण घुणन्तर घुन्तर घूं’ बड़बड़ाता रहता था. मैं सोचता था वो कोई पहाड़ा याद कर रहा है, सुद्धा कहता था वो ढोल की किसी ताल की नकल करता रहता है, पर किशनू ने बताया एक बार वह ‘गुलाम लकड़ी’ खेलता हुआ एक ऊंचे पेड़ से गिर गया था और तभी से यही बोलता रहता है हमेशा. *** बीरमा बळाई एक बहुत अच्छा हड्डी विशेषज्ञ भी था. नानी बतलाती थीं कि दूर दूर के गाँवों के लोग भी यहाँ आकर बीरमा से हड्डियां जुड़वाते थे. छोटे मामा के टीले पर बने एक दूसरे घर से आते हुए एक बार मैं टीले से फिसल गया था और नीचे एक बड़े पत्थर से जोर से जा टकराया था. हाथ में खरोंचें तो लगी थीं पर उसके बाद चलना मुश्किल हो गया था. मेरे भाई लोग जैसे तैसे मुझको सहारा देकर घर तक लाए थे. अम्मा और नानी को डर था कि मेरे कूल्हे की हड्डी में चोट आई है. लिहाज़ा इसकी पुष्टि के लिए मंझले मामा मुझे गोद में उठा कर बीरमा के घर तक ले गए. साथ में अम्मा भी थीं. बूढ़े बीरमा ने ज़ोर ज़ोर से मेरे कूल्हे की हड्डियां दबाईं और ऐलान किया कि हड्डी खिसक गई है. बोला इसे जल्दी ही बैठानी पड़ेगी वर्ना बाद में ज़्यादा परेशानी आ सकती है. थोड़ी ही देर में नानी और सब बच्चे भी वहाँ पहुँच गए. बीरमा ने ‘इलाज’ के लिए एक जलता हुआ ‘छाणा’ (उपला), मूंज की रस्सियाँ और दो मिट्टी के कुल्हड़ मँगाए. उसकी बहू ने सारी चीज़ें लाकर रख दीं. मुझे पजामा नीचे करके एक दरी पर पेट के बल लिटा दिया गया. कुछ दर्द के कारण और कुछ ‘ऑपरेशन’ का यह सामान देख कर मैं रुआंसा हो रहा था. बीरमा ने जलते हुए उपले पर मूंज रख दी और उसके जलने से धुंआ निकालने लगा. जिस तरह इंजेक्शन लगाने से पहले डाक्टर सुई को सिरिंज में फिट करता है, फिर सुई को दवा की शीशी में घुसा कर दवा अंदर खींचता है, सिरिंज को हवा में ऊंचा लहराके उसमें से हवा निकलता है और जिस तरह इस सब के बीच मरीज़ की रूह कांपती रहती है वैसी ही स्थिति मेरी हो रही थी. बीरमा ने मेरे कूल्हे की हड्डी को टटोला, अचानक जलती हुई और धुआं देती मूंज को मेरे कूल्हे पर उस जगह रखा और तुरंत ही उसके ऊपर कुल्हड़ ढक दिया. हालाँकि मैं देख नहीं सकता था पर जलती मूंज की जलन महसूस कर रहा था और रो रहा था. मामा ने मुझे पकड़ रखा था. मुझे लगा था मैं जल जाऊँगा पर कुछ क्षणों में ही मूंज के बुझ जाने पर जलन कम होगई और उस जगह भारी खिंचाव सा होने लगा. अचानक बीरमा ने एक झटके के साथ कुल्हड़ ऊपर खींचा. एक आवाज़ के साथ कुल्हड़ मेरे कूल्हे से अलग हुआ और शायद अंदर की हड्डी को भी थोड़ा ऊपर उठा कर ले लाया. मैं ज़ोर से चिल्लाया, पर सब मुझे सांत्वना देते हुए कहने लगे ‘होगो होगो’. बीरमा ने फिर मेरे कूल्हे की हड्डी को टटोला और कहा ‘ठीक छै, बैठ गई’. उसने अरंड के बड़े पत्ते पर खोपरे का तेल और कोई और द्रव लगाया और उसे कूल्हे की हड्डी पर रख कर एक पट्टी से बांध दिया. दो दिन आराम करने का निर्देश देकर उसने मुझे ले जाने को कहा. सचमुच ३-४ दिन बाद मैं फिर से दौड़ने कूदने लग गया था. जयपुर में भी इसी तरह हमारी एक अधेड़ उम्र की ‘खातन माई’ हुआ करती थी जो अम्मा या मेरी बहनों के पैरों को इधर उधर मोड़ कर ‘धरण’ बैठा देती थी. घर में किसी भी औरत के पेट में दर्द होने पर सबसे पहले खातन माई को ही याद किया जाता था. *** वह प्रतीक्षित दिन आखिर आ ही गया जो सारे गाँव का, बल्कि आसपास के दूसरे गाँवों का भी त्योंहार का सा दिन हुआ करता था. तेजाजी का मेला. दोपहर ढलने तक आसपास से या जयपुर से कई ‘दुकानदार’ आगये थे - कुछ खिलौने वाले जिनके पास मिट्टी की ‘गड़गड़ गाड़ी’, कागज़ के सरकंडे में लगी हुई फिरकनी, ‘पीपाड़ी’ वगैरह हुआ करती थी; गुब्बारे वाले; आइसक्रीम वाले जिनके पास जो रंगीन मीठे शर्बत के साथ बर्फ़ के गोले बनाते थे, लंबी डंडी वाली कुल्फियाँ बेचते थे और ऐसी आइसक्रीमें भी रखते थे जिनके ऊपर के हिस्से में रबड़ी की तरह ही कोई आधे इंच की परत होती थी, पर वे सादा सिर्फ़ बर्फ़ वाली आइसक्रीमों से अधन्ना मंहगी होती थीं; मिठाई वाले जिनके पास अन्य चीज़ों के अलावा ‘लेमनचूस’ की तरह ही लगने वाली रंगबिरंगी गोलियाँ भी थीं, और इसी तरह कुछ और चीजों के. हम लोगों को खर्च करने के लिए दुअन्नी मिली थी, हरेक को. गाँव की सारी औरतें अपने सबसे अच्छे कपड़े – गोटा लगी रंगबिरंगी कांचली, घाघरा लूगड़ी में थीं. उन सब के माथे पर चांदी का मोटा सा बोरला, गले में भारी चांदी की हंसली, हाथों में काफ़ी ऊपर तक पौंची या बंगड़ी और कड़ों के साथ कांच, लाख और हाथी दांत की लाल हरी चूड़ियाँ, कमर में लटकती चांदी की मोटी कौंधनी (करधनी) और पैरों में चांदी के भारी मोटे कड़े या छागल आदि थे. छोटी लड़कियां नया पोलका घाघरा पहने थीं, और छोटे बच्चों ने कमीज़ और चड्डियाँ पहन रखी थीं. आसपास की औरतें इसी तरह अच्छे अच्छे और नए सिले बगरू छाप या सांगानेरी लाल काली गोल गोल छाप वाले घाघरे और लूगड़ी और उसी तरह के श्रृंगार का सारा साज़ो-सामान पहने और लंबा घूंघट निकाले गाती हुई आती जारही थीं. कुछ मनचले युवक भी मोटा सा काजल लगा कर कानों में बालियाँ लटकाए, नई धोती, सदरी, मोजड़ी और काले धागों में लटके जंतर पहने स्वयंवर का सा माहौल बना रहे थे. बच्चों की चीख़ चिल्लाहट, औरतों की ज़ोर ज़ोर से गपशप या उनके राजस्थानी गीत, युवकों के जयपुरी भाषा में द्विअर्थी गाने, कुछ बच्चों के खरीदे ‘पीपाड़ी’ जैसे वाद्य आदि इतना शोर पैदा कर रहे थे कि हरेक को चिल्ला कर ही बोलना पड़ रहा था. ‘धूम धड़क धड़, तड़क तड़क तड़, धूम धड़क धड़, तड़क तड़क तड़....’ तेजाजी के चबूतरे के पास ही हणमान राणा का ढोल बजना शुरू होगया था जो इस बात का संकेत था कि मेला अपने पूरे शबाब पर आगया था. किशनू ने बताया अब थोड़ी देर में ही तेजाजी आयेंगे. हम लोगों ने दोपहर की धूप ढलने से पहले ही चबूतरे पर अपना कब्ज़ा जमा लिया था. हणमान का ढोल उसी निर्धारित गति और ताल के साथ लगातार बज रहा था और कुछ लोग उसके अच्छा ढोल बजाने के लिए सिर हिला कर अपनी सम्मति व्यक्त कर रहे थे जिसे हणमान दांत निकाल कर स्वीकार कर रहा था. उसका आगे का एक दांत सोने का था. यह सिलसिला करीबन आधे घंटे चला होगा कि दूर से एक आदमी झूमता हुआ, ज़ोर ज़ोर से कांपता हुआ, आवेश में अपनी गर्दन इधर उधर हिलाता हुआ आता दिखाई दिया. उसके साथ कुछ और लोग भी थे. किशनू ने बताया इसी आदमी में दो साल से तेजाजी आते हैं. इससे पहले नाथ्या कुम्हार में आते थे पर उससे एक बार बीमारी की हालत में तेजाजी के चौंतरे के पास मूतने का अपराध हो गया. सुद्धा ने कहा जब भी लगातार ढोल इस तरह बजता है तो तेजाजी उस आदमी में प्रवेश कर जाते हैं और वो आदमी अजीब सी हरकतें करता हुआ, झूमता झामता उस स्थान तक खिंचा आता है जहाँ ढोल बज रहा होता है. उसके आते ही अचानक थोड़ी शांति सी होगई और लोग ‘तेजाजी की जै, तेजाजी की जै’ के नारे लगाने लगे. उस व्यक्ति के कांपने और विचित्र तरीके से झूमने से भय मिश्रित कौतूहल हो रहा था - भय ज़्यादा और कौतूहल थोड़ा कम. ‘तेजाजी’ के इर्द गिर्द भीड़ जमनी शुरू होजाती है. किशनू ने समझाया अब लोगबाग अपनी अपनी परेशानियां तेजाजी को बताएँगे. किसी की लुगाई ने भाग कर दूसरा नाता कर लिया, किसी का ऊँट चोरी होगया, किसी का बैल थोड़े से पैसों के बदले ही साहूकार ने रख लिया, किसी का जंवाई ही घर में चोरी करके भाग गया और अपनी लुगाई को वहीं छोड़ गया, किसी की बीमारी कई सालों से ठीक नहीं होरही ..., इसी तरह की सारी समस्याओं का समाधान तेजाजी बता देते हैं. पड़ौस के गाँव का छिन्तर भी वहाँ आया था जो अपने सासरे में ही रह रहा था घर जंवाई. उसका ससुर मर गया था, उनके तीन बेटे भी और अब उनके एक ही बेटी बची थी. पर अब वो सास जो है तीन साल से बीमार है, लेकिन मर ही नहीं रही. छिन्तर से ही छः महीने पहले ठीक-ठाक पैसों में मामा ने एक बकरी खरीदी थी दो मेमनों के साथ. अच्छा दूध देती है. किशनू को मानो उससे बड़ी सहानुभूति थी. तेजाजी बता देंगे कब उसकी सास मरेगी, फिर सब कुछ उसका ही होगा. ‘तेजाजी’ झूमते हुए लोगों के प्रश्नों का उत्तर दे रहे थे. तभी ‘परे हटो परे हटो’ चिल्लाते कुछ लोग एक अर्धमूर्छित व्यक्ति को कंधे में उठाये चले आरहे थे. लोगों ने उसके लिए जगह बनाई और उसे तेजाजी के पास ही लिटा दिया गया. ये लोग किसी दूसरे पड़ौसी गाँव के थे. उस व्यक्ति को एक सांप ने काट लिया था. किशनू ने बताया जब मेला होता है तो कोई सांप यहाँ किसी को कभी न काटता है न परेशान करता है, बल्कि बांबियों से ही नहीं निकलता है. पर यह दूसरे गाँव का था. खैर. तेजाजी मूर्छित आदमी के और नज़दीक खिसक आये और शरीर के उस स्थान का निरीक्षण करने लगे जहाँ सांप ने काटा था. अचानक वे झुके और वहाँ मुंह से ज़हर चूस कर थूकने लगे. दो तीन मिनट के बाद वे रुक गए और एक पंखों से बनी झाड़ू से झाड़ा देने लगे. कोई ५ मिनट के अंदर ही वह व्यक्ति हिला और उठ कर बैठ गया. एक बार फिर ‘तेजाजी की जै, तेजाजी की जै’ का उद्घोष हुआ. थोड़ी देर बाद वह व्यक्ति लोगों के कन्धों पर झूलता हुआ वहाँ से चला गया. इस बीच ‘धूम धड़क धड़, तड़क तड़क तड़, धूम धड़क धड़, तड़क तड़क तड़....’ हणमान राणा का ढोल लगातार उसी तरह लय में बज रहा था. तेजाजी अब भी लोगों की समस्याओं का हाल बताने में लगे थे, सिर्फ़ दो लोग बाक़ी थे. जैसे ही इन दो के प्रश्नों का उत्तर भी तेजाजी ने दिया, किसी ने हणमान को इशारा किया और उसने ढोल की आवाज़ थोड़ी धीमे की और फिर बजाना बंद कर दिया. इसके तुरंत बाद ही तेजाजी का हिलना कम होते हुए बंद हो गया. ‘तेजाजी’ चले गए. एक बार फिर ‘तेजाजी की जै, तेजाजी की जै’ के नारे लगे और लोग उस पूरी तरह थके हुए व्यक्ति को कोई शर्बत पिलाने लगे. फिर उन सभी ने मिल कर एक चिलम सुलगाई और उकड़ूँ बैठ कर सुट्टे लगाने लगे. तमाशा खत्म. किशनू बड़े गर्व से मेरी ओर देख रहा था, मैं सिर्फ़ रोमांच के कारण थोड़ा सा मुस्करा भर रहा था. *** जब भी हम बड़ के पेड़ के नीचे से निकलते थे किशनू पेड़ में गर्दन ऊंची करके कुछ देखता था. समझ में नहीं आता था वो क्या देखता था. एक दिन उसने बताया वह भौंर्या मो को देखता है कि वो अपनी जगह हैं कि नहीं. पेड़ के नीचे से गुज़रते वक़्त मेरे ऊपर भौंर्या मो का आतंक इतना छाया रहता था कि वहाँ से किसी तरह निकल भागने का ही मन करता था. अगर भौंर्या मो कोई मोटा बन्दर है तो हो सकता है ठीक हमारे ऊपर कूद जाय, या कोई राक्षस है तो क्या पता अपना हाथ लंबा करके हमें ऊपर ही खींच ले या खुद ही नीचे उतर कर हमें पकड़ ले या अगर कोई बाज़, गिद्ध या कोई खतरनाक पक्षी है तो होसकता है नीचे से गुज़रते वक़्त एक झपट्टा मार कर पंजों से ले उड़े. हर स्थिति में अच्छा यही था कि वहाँ से जल्दी ही खिसक लिया जाये. देर शाम को किसी के साथ भी कितनी भी लालटेनों के साथ वहाँ से निकलने की कल्पना से भी सिहरन सी होने लगती थी. पिछले साल मैं जब यहाँ आया था तब ऐसी कोई समस्या नहीं थी, न किसी तरह का डर था. कई बार तो हम चांदनी रात में भूड़े-मिट्टी में बड़ के पेड़ के इर्द गिर्द ख़ूब पकड़म-पकड़ाई और लुकाछिपी खेलते थे. किशनू ने बताया दो-तीन महीनों से ही भौंर्या मो का प्रकोप हो गया है. छिगन्या अपने दोस्तों के सामने अपनी शान दिखाने के लिए बड़ के पेड़ के ऊपर तक चढ़ गया था और तभी भौंर्या मो ने हमला कर दिया था. किसी तरह वो नीचे तो उतर आया पर उतरते ही बेहोश होकर गिर पड़ा. उसका सारा शरीर बुरी तरह फूल गया था. काफ़ी देर बाद लोगों को इस हादसे का पता चला. पर तब भी भौंर्या मो शांत नहीं थे. करीब एक घंटे के बाद हिम्मत करके और अपने ऊपर कपड़ा लपेट कर ही उसका बाप उसे उठा कर ला पाया. काफ़ी झाड़फूँक करवाई पर छिगन्या को बचाया नहीं जा सका. बड़ी हिम्मत जुटा कर मैंने किशनू से पूछा – ‘अगर मैं चुपचाप ऊपर भौंर्या मो को देखूं तो वो मुझे मार तो नहीं देगा?’ किशनू ने कहा - ‘नहीं’. किशनू का हाथ थामे बड़ी हिम्मत के साथ मैंने ऊपर देखा, पर वहाँ जो कुछ मैं देखने की कल्पना कर रहा था वह नहीं दिखा. मैंने कहा- ‘वहाँ तो सिर्फ़ एक बड़ा सा मधुमक्खियों का छत्ता है’. किशनू ने कहा- ‘मधुमक्खी नहीं, भौंर्या मो. ये मधुमक्खियों से बहुत मोटी होती हैं, भौंरों जितनी. और ज़्यादा खतरनाक भी.’ 'भौंर्या' यानी भंवरा और 'मो' यानी शहद. भोंरों जितनी मोटी मधुमक्खियाँ. भौंर्या मो अब भी वहीँ थे और मुझे ख़ुशी थी कि मैं अब पेड़ के ऊपर बेझिझक देख सकूँगा. पर न जाने क्यों इस तिलिस्म के टूटने पर एक अजीब सी निराशा और उदासी मेरे मन पर छाई रही, कई दिनों तक..... **** Kamlanath 8263, pocket B-XI, Nelson Mandela Marg. Vasant Kunj, Delhi-110070